Monday, September 28, 2015

गलत और सही

आज शाम अचानक पड़ोस के घर से तेज आवाजें आने से मेरा ध्यान सहज ही वहां चला गया , नजारा बेहद ही नाजुक था।  पति और पत्नी किसी छोटी सी बात पर झगड़ रहे थे , बच्चे किसे गलत और किसे सही कहें समझ नहीं पा रहे थे।  चारों तरफ चिल्लाहट सभी को परेशान और लज्जित कर रही थी।  बातें बिना वजह बड़ी होती जा रही थी और आखिरकार नौबत "क्या तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता/सकती?" तक जा पहुंची।  हम पडोसी कुछ भी न कर सके क्योंकि यह उनका जातीय मामला था और हस्तक्षेप नागरिकता की सीमा से परे था।

अगले ही दिन मेरी सहेली ने आनन फानन में घर छोड़ने का फैसला गुस्से में कर लिया , जबकि हमने समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वो अपने पति को एक सबक सिखाना चाहती थीं। एक हद तक समझाने के बाद हमने चुप रहना बेहतर समझा और झगडे की आखिरी हद अलगाव में तब्दील हो गयी।  जब तक एक छत के नीचे थे किसी न किसी तरीके से समझौता होने की गुंजाइश थी लेकिन अलग होने के बाद गुस्सा नफरत और अलगाव एक अजीब तरह के प्रश्न ले आया।   क्यों मैं ही पहल करूं ? क्या मुझे अकेले जीना नहीं आता ? क्यों हमेशा मैं ही स्त्री होने की सजा भोगूं ? यदि उनको पत्नी की जरूरत हो तो आने दो समझौते के लिए , इस तरह की बातों ने उनकी पारिवारिक स्थिति को एक नया रूप देकर विकृत कर दिया और मासूम बच्चे मां -पिता के अहम भाव के तहत मूक दर्शक बन गए। 

लगभग एक महीना बीत गया लेकिन दोनों ने चुप्पी नहीं तोड़ी , महीने और फिर साल , आज लगभग 5 सालों के बाद भी जब मैं उनके घर के सामने से गुजरती हूं तो अनायास ही आंखें भर आती हैं क्योंकि उन्होंने बच्चे अच्छी तरह से पाले थे लेकिन सिर्फ थोड़ी सी अकड़ की वजह से दोनों ने बच्चों को अनाथ बना दिया। लगभग हर परिवार में छोटे मोटे झगडे होना आम बात है लेकिन अलगाव की हद तक उनको अहमियत देना बेहद ही गलत है क्योंकि अकड़ में पति -पत्नी मासूम बच्चों को बेवजह सजा देते हैं और उसकी छाया जीवन भर उनका पीछा नहीं छोड़ती , परिवार में बेहद मुख्य चीज आपसी समझ और बच्चों के मानसिक विकास पर कोई बुरा असर न पड़े इस बात का ख़याल होता है , उसके बाद ही हम गरीबी या अमीरी में उनकी परवरिश कर रहे हैं , आता है। मेरे विचार में हर एक परिवार में ऐसी चीजों का ध्यान रखना एक कर्तव्य होना चाहिए ,अन्यथा बच्चे शादी से ही डरकर भागने लगेंगे। 

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