Monday, December 7, 2015

इक था बचपन , इक था बचपन !

जब जब भी छोटे छोटे बच्चों को थिरकते देखती हूं अनायास ही मुस्कुरा देती हूं अपने बीते दिनों को याद कर। आजकल तो बच्चों से बचपन ही छिन चुका है।  बस्तों का बोझ उठाये पीठ झुक जाती है।  परिवारों में अब चहलपहल सिर्फ कभी-कभार ही होती है।  कमरे में सिमट आयी है उनकी छोटी सी दुनिया। खाना भी सब कहां साथ खाने मिलते हैं। सब अपनी सुविधा से खाते हैं।  परिवार में सबके साथ होने का दिन सिर्फ रविवार हो गया है।  उसमे भी मित्रों का साथ ज्यादा पसंद किया जाता है। बढ़ती महंगाई ने परिवारों में मेल मिलाप ही नहीं बहुत सारी खुशियां जिनका पैसों से रिश्ता ही नहीं, छीन ली और अधिकांशतः बच्चे पढ़ाई और ज्यादा अंक लेने की प्रतिस्पर्धा में चिंताओं का बोझ उठाये फिरते हैं जिनको हंसाने के लिए दूरदर्शन कार्यक्रम भी सफल नहीं होते।

मुझे एक बात कभी भी समझ नहीं आयी कि क्यों सभी उनके बच्चे सबसे ज्यादा अंक लेने की अंधी दौड़ में लगातार बच्चों को ढकेलने में गर्व महसूस करते हैं।  बच्चों को भी जीने का और हमारी ही तरह बचपन में बचपना  करने की स्वतंत्रता जरूर मिलनी चाहिए।  हम दुर्भाग्यवश उनसे बहुत कुछ अनजाने ही छीनने की गलती करते हैं।  जिस दिन 12 का रिजल्ट आना होता है , बच्चे मेरे घर में होते हैं , ज्यादातर उनको अपने मां और पिता का सामना करने का धैर्य नहीं होता। आखिर क्यों ये डर , ये बेहूदगी नहीं तो और क्या है ? रिजल्ट देखने के बाद भी उनके चेहरों पर खुशी नहीं झलकती , पूछने पर पता चलता है कि उनके घर में बहुत ज्यादा अपेक्षाएं थीं और उनको घर जाने पर डांट और मार मिलेगी। लगभग दो घंटों के बाद ही बच्चे घर जाने की सोचते हैं।

चाहे जितना भी लगाव हो बच्चे तो माता पिता से अलग न होंगे लेकिन जो अपनी परेशानियां वे मुझसे  बताकर मन का भार हल्का करते हैं क्या वो अपने परिवार से करने हिचकते हैं ? हरगिज नहीं।  मन में संकोच होना चाहिए लेकिन डर कतई नहीं क्योंकि यही तो कभी कभी बच्चों के गलत निर्णय लेने के लिए उत्तरदायी होता है। मैंने बहुत माता पिता को ये कहते सुना है कि यदि वो अधिक अंकों से उत्तीर्ण न होंगे तो वे उन्हें नहीं पढ़ाएंगे या गाड़ी नहीं लेकर देंगे।  हर माता पिता का अपने बच्चों से अपेक्षा रखना स्वाभाविक है लेकिन हर बच्चे की क्षमताओं में फर्क होता है और हमें कभी भी दूसरों के बच्चों से तुलना करने की गलती नहीं करनी चाहिए।

अधिकतः जो बच्चे सिर्फ पढने में दिलचस्पी रखते हैं उनको अतिरिक्त विषयों का ज्यादा ज्ञान और रुझान नहीं होता लेकिन जो पढने में ज्यादा आगे नहीं होते वे कई तरह की अभिरुचियों में उत्कृष्ट पाये जाते हैं। यदि उनकी अभिरुचियों का थोड़ा ख़याल रखकर प्रशंसा करने के बाद उनसे हम थोड़ा अधिक प्रयास करने का अनुरोध करें तो यकीन कीजिये उनका स्तर ऊंचा होगा और हमें भी कोई शिकायत नहीं रहेगी। जब मैं दसवीं कक्षा में थी कई सहपाठियों को मैंने इंग्लिश ग्रामर समझाया और वे सब उम्मीद न करने की हद तक अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो मेरे दोस्त बन गए  थे क्योंकि उनके परिवारों में इस विषय में ही सभी अनुत्तीर्ण हो चुके थे।  थोड़ी सहानुभूति और समझदारी से कई चीजों में हमें बदलाव मिलता है लेकिन हम दूसरों को बदलना चाहते है खुद बदलना नहीं।

जब हम उनकी तुलना दूसरे बच्चों से करते हैं उनमे ईर्ष्या का जन्म होता है जो समय के साथ द्वेष में बदलती है और ऐसा घर में हो तो फिर बच्चे कैसे सहज रूप से एक दूसरे से रिश्ता  सकेंगे ?  हम अनजाने ही उन्हे गलत बातों का  हिस्सा बनाते हैं और फिर दोषी उन्हें ही ठहराते हैं जो कतई ठीक नहीं।  बच्चों का जिद करना स्वाभाविक है लेकिन जब हम उनकी हर जिद को नजरअंदाज किये बिना उनकी मानते हैं तब जिद्द उनके स्वभाव में
शामिल हो जाती है।  यदि स्नेह से समझाया जाए तो बच्चे बहुत जल्द समझ जाते हैं।  कैसे वे बर्ताव करेंगे और कब उनकी बातें चाहे गलत ही क्यों न हों , मानी जाएंगी ये वे 2 साल की उम्र के भीतर ही अच्छी तरह जान लेतें हैं  , हम ही उन्हें इन बातों का ज्ञान नहीं सोच स्वयं को धोखा देते हैं।  बच्चे बेहद संवेदनशील और बुद्धिमान होते हैं उन्हें कृपया उनके बचपन का पूरा मजा लेने दीजिये।  तब ही तो वे हमारी तरह यादों की धरोहर मन में संभालकर रखेंगे न !

इतनी उम्र होने के बावजूद हमारे चेहरे पर पुरानी बचपन की यादें एक चमक लातीं हैं न ? तो फिर क्यों न हमारे बच्चे भी इसे एक तरफ मन में धरोहर जैसे संभालें ? उनको भी मौक़ा तो चाहिए न !!







Wednesday, October 28, 2015

ज़िंदादिली की मिसाल

आज भी याद आने से आंखें छलक जाती हैं  मामाजी के देहांत और उस समय छोटी सी मीशा का मासूम चेहरा , हम सब जड़ हो गए थे दुःख और असमय इस तरह के कठोर आघात से। पूरे परिवार पर मानो बिजली गिर गयी हो ! तराजू में तौल तो नहीं सकते प्यार को लेकिन मामाजी हर एक दिल की धड़कन थे ! सच कहें तो मामाजी की मौत नहीं हुयी बल्कि उन्हें मारा गया था क्योंकि वे बाकी लोगों के रास्ते में एक रूकावट थे ईमानदारी की वजह से और उनकी बुद्धिमानी से चोरी पकड़ने से बड़े से बड़े अधिकारी भी कांप चुके थे। यदि वे रहते तो संभवतः कई बड़े अधिकारी भी ब्लैक लिस्ट में आ चुके होते ! खैर ये तो पुराने जख्म हैं जो हमेशा ही हरे रहेंगे।  

सभी का मशविरा था कि चूंकि मीशा छोटी थी उसे मामाजी का चेहरा न दिखाया जाए क्योंकि मासूम मन में ये गहरी चोट होगी , लेकिन आखिरकार उसे नजदीक ले जाकर मामाजी का चेहरा दिखाया गया लेकिन मृत्यु का उल्लेख किये बिना , वह क्षण जैसे कैमरे में लिया फोटो हो आज तक मन में कहीं गहरे तक अंकित है।  उसके बाद सब कुछ ख़त्म हो गया , धीरे धीरे हम सब मीशा और रुनझुन में मामाजी को देखने लगे और समय अपनी रफ़्तार से भागता रहा लेकिन रायपुर भी धुंधला हो चला था।  जान नहीं रही थी रायपुर में।  बेटी ! उस बुलाने के अंदाज़ में मामाजी जैसे जान डाल देते हों ! फिर कभी उस शब्द में उतनी मिठास नहीं लगी जैसे मामाजी के बुलाने पर लगती थी। वाह रे वाह , मामाजी की याद अभी भी मेरी आंखों से झड़ी बनकर बरस रही है , न जाने क्यों इस सप्ताह मामाजी ही छाए हैं मन में !

उस दिन मैंने कुछ हिचकते हुए मीशा का नंबर डायल किया , क्या पता वो क्या सोचेगी लेकिन फिर भी मैंने थोड़ी देर बातें होने पर मैंने पूछा,मीशा तुमको तो शायद मामाजी की याद न हो , उसपर तुरंत मीशा ने कहा "नहीं दीदी मुझे अच्छी तरह पापा की याद है " मेरी बोलती ही बंद हो गयी।  इतने ज़िंदादिल मामाजी की दोनों बेटियां बेहद ही अच्छी हैं लेकिन चंद लोगों की गलत साजिश ने उनसे उनका आधा बचपन और सागर जैसे प्यार ही प्यार भरे दिलवाले मामाजी को छीन लिया , इसे विधि का विधान कहें या सजा लेकिन मेरे मन में एक कसक मरते दम तक रहेगी कि मैं अपनी बहनो से दूर बहुत ही दूर रह गयी ! यदि मामाजी होते तो हम सबका जीवन कैसा होता ? निःसंदेह मेरी दोनों प्यारी बहनो को भी हमारी ही तरह दिल लबालब भरा होता प्यार भरी उनकी यादों से। मीशा को थोड़ी बहुत यादें होंगी लेकिन रुनझुन तो बहुत ही छोटी थी , उससे मेरी बात भी नहीं हुई है सिर्फ उसकी तस्वीरें ही देखकर खुश हो लेती हूं।  भगवान से प्रार्थना करती हूं कि मेरी प्यारी मासूम बहनो का चेहरा देखने का सौभाग्य मुझे जल्द ही मिले।   

Sunday, October 18, 2015

आधुनिकता

आजकल आधुनिकता के नाम पर अपने संस्कार भी भुलाने हम तैयार हो चुके हैं लेकिन ये चार दिनों की चांदनी  जाने के बाद शायद हमें कुछ कहने का भी हक़ नहीं मिलेगा क्योंकि सोच तो हम ही बदलने आतुर हैं। पुराने ख्यालों से खुद को अलग करने की यह आतुरता हमें शायद ही रास आये।  मन में गहरे तक अपने संस्कारों से जूझना साधारण बात नहीं होती लेकिन हम पीछे हटना नहीं चाहते और आगे जाने से डरते भी हैं। स्त्रियों ने स्वतंत्रता के नाम पर कम से कम कपड़ों में गुजारा करने का फैसला लिए काफी समय हो गया लेकिन आज तक पुरुषों ने हमारा अनुकरण नहीं किया।  हमारे कपड़ों के चुनाव से हम बिना कहे बहुत कुछ कहते हैं।

विचारों से हम आज भी आधुनिक नहीं बन सके हैं।  विदेशों में जिस आसानी से जीवन साथी चुने या रद्द किये जाते हैं क्या उतनी सहजता से हम अपने परिवार की स्त्रियों को स्वतन्त्रता देंगे ? हरगिज नहीं।  हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं वैसे ही हम अपनी सुविधा के हिसाब से मुखौटे पहनने जैसे विचार बदलते हैं।  यदि हमारी बहने सरे आम देर रात घर आएं तो हम कतई अनुमति नहीं देते और वहीँ किसी घर की बहन अपने साथ देर रात गए रहने पर आधुनिकता का चोगा निःसंकोच पहनते हैं। क्यों ये दोहरी विचारधारा जो स्वार्थ के अनुसार बदलते हैं ?

आजकल लड़कियां सरेआम लड़कों के साथ घूमने फिरने में और तस्वीरों के आदान प्रदान तक सहजता से रिश्ते निभा रहीं हैं। अस्पतालों में लडकियां पेट दर्द की शिकायत लेकर मां के साथ आतीं हैं लेकिन खुद के मां बनने की थोड़ी सी आशंका उनके मन में नहीं होती और यदि जान भी जायें तो गिड़गिड़ाने पर उत्तर आतीं हैं शादी के लिए , यही तो एक वजह है लड़कियों के मन में पुराने संस्कारों की जगह आज तक आधुनिकता ने नहीं ली। मां बनने की हद तक जाने से न डरने वाले क्यों फिर सामाजिकता के नाम पर भागते हैं ?  हम पूरी तरह से आधुनिक नहीं बन सकते , फिर क्यों ये देखा देखी का ढोंग ? हमारे बच्चों को हम जो दे सकते हैं उसमे बहुत बड़ी धरोहर है हमारे उच्च संस्कारों की। हम जहां भी जाएं हमारे संस्कार हमें इज्जत और प्रेम के हकदार बनाते हैं। विदेशों में अब सारी आधुनिकता से तंग आकर भारतीय संस्कारों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

हम शादी में जितना दहेज़ बेशर्मी से मांगते हैं उतनी ही बेरहमी से बहुओं को परेशान भी करते हैं जो कि आधुनिकता के नाम पर कलंक है। आधुनिक सिर्फ कपड़ों और खाने में नहीं  हुआ जा सकता बल्कि विचारों से आधुनिक होना चाहिए।  हमारे देश में उनके जमाने से आगे विनोबा भावे , राजाराम मोहन राय , रविंद्रनाथ टैगोर , भारती  जैसे महान विचारों वाले लोग आज तक हमें प्रभावित करते आ रहे हैं।  आवश्यक है एक बदलाव जिसे हमने व्यवहार में लाना है। 

Monday, September 28, 2015

प्रगति कितनी सच और कितनी नकली

जहां तक मेरी याद जाती है हमारा देश स्त्रियों का पूरी तरह से सम्मान और सुरक्षा देने के लिए प्रसिद्ध रहा है। विदेशियों के आगमन से पहले हर तरह से प्रगतिशील रहे हम बीच के कुछ वर्षों में अपनी पहचान पूरी तरह से खो बैठे और गुलामी ही हमारी कमजोरी बन गयी। हमारा विकास अधूरा ही रहेगा जब तक हम नारियों को उनके अधिकारों से वंचित करेंगे। इतिहास गवाह है हमारे देश की नारियों के धैर्य और असाधारण क्षमताओं का लेकिन आज हम स्वाभाविकता से नारियों का अपमान करने में एक सुख और गर्व का अनुभव करते हैं। जब हमारे परिवार या किसी अन्य नारी अपनी आँखों के सामने अपमानित होते देखते हैं तो हमारी दबी अनुभूतियाँ ऊपर आकर उनकी रक्षा के लिए आतुर हो, हम खुद को अपने स्वाभाविक रूप से अलग पाते हैं। इसका मतलब साफ़ ज़ाहिर है कि हमारे अंतर्मन में कहीं  गहरे हमारे संस्कार अपनी जड़ जमाये हैं लेकिन अपने स्वार्थ की वजह से हम उनका परित्याग करने में नहीं हिचकते, क्यों ? बेटियों का अच्छी जगह विवाह करने की इच्छा हर एक पिता की होती है लेकिन पत्नी को हम क्यों उसके अधिकारों से वंचित करने में सुख ढूंढते हैं ? हम बिना किसी झिझक के क्यों ऐसा व्यवहार करते हैं, शायद अपने नपुंसक मन को एक झूठी तृप्ति देने के लिए लेकिन इसके घातक परिणाम झेलने के लिए न ही हमारे मन में ताकत है और न ही इच्छा।

जब हम पूरी तरह से खान पान और रहन सहन में विदेशियों की तरह रहने में खुशी पाते हैं तो क्यों हम उनकी ही तरह अपने परिवार की स्त्रियों को स्वतंत्रता और इज़्ज़त नहीं दे पाते ? हमारा नजरिया इकतरफा हो चुका है और दिमाग शिथिल। किसी भी ज़माने में हमने महिलाओं को अपमानित होने नहीं दिया लेकिन अब तो जान लेने में भी हिचकते नहीं क्योंकि हमारा मानसिक स्तर गिर चुका है और हम इसमें अपनी शान समझने लगे हैं। 

किसी भी ज़माने में स्त्रियां कमजोर नहीं रहीं ,  हमने उनको परिवार का वास्ता देकर घर की चहारदीवारों में कैद करके एक आत्मतृप्ति महसूस की , स्त्रियों ने अपना कर्तव्य खुशी खुशी  निभाया और हर एक परिस्थिति में अपने परिवार को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार किया , क्या यह उनके त्याग और सहनशीलता का उदाहरण नहीं? हमें हर एक मुश्किल में पूरे मन से साथ देकर हमारे हौसले बढ़ाये, जब भी मन से हमने निरुत्साहित महसूस किया, उम्मीद की एक किरण बनकर बेटी, बहन, दोस्त, पत्नी, मां, भाभी हर रूप में हमारा साथ दिया। हमारी प्रेरणा स्त्रोत्र को हम इतनी आसानी से कुचलने में नहीं हिचकते , कैसे हमारा मन हमारा साथ इस तुच्छ और घृणित नज़रिये को व्यवहार में लाने की अनुमति देता है? 

हमारे देश में लक्ष्मीबाई , विजयलक्ष्मी पंडित , गार्गी , इंदिरा गांधी , किरण बेदी , कल्पना चावला, मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी , सोनिया गांधी , मदर टेरेसा , सरोजिनी नायडू जैसी वीर और जुझारू स्त्रियों की कमी नहीं लेकिन हमारा नजरिया ठीक नहीं। हम तो बेहिचक बेटियों की संख्या कम करने में अपनी इज़्ज़त समझने लगे हैं। कल को हमारा नाम रौशन करने के लिए बेटियां ही नहीं होंगी!! सोचिये और अपने बदलते नज़रिये को सुधारिये , हर इंसान अपनी माँ और बहिन से प्यार करता है तो फिर खुद की ज़िन्दगी संवारने वाली पत्नी और खुशियां बिखेरने वाली बेटियों के लिए क्यों हम अनजाने ही अपना नजरिया संकीर्ण होने दें ?  भारतीय संस्कृति अपनी अलग पहचान रखती है और अपनी मातृभूमि की खुशबू हमें बरक़रार रखनी ही होगी....

बच्चे मन के सच्चे

बच्चे मन के सच्चे होते हैं लेकिन बचपन में जिन अनुभवों से ये मासूम गुजरते हैं उनका मानसिक प्रभाव बहुत ही गहरा होता है और अधिकतर परिवारों में साधारणत: इस पर ध्यान नहीं दिया जाता।  जब ध्यान जाता भी है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।  मैंने लगभग २० परिवारों को बहुत करीबी से देखा है , लेकिन उनके आर्थिक स्तर में फर्क होने के अतिरिक्त दूसरा कोई भी फर्क मुझे नजर नहीं आया।  जिनके बच्चे नहीं होते वो हर प्रयास करने को तैयार होते हैं लेकिन जिनको बिना किसी परेशानी के बच्चे होते हैं उनको बच्चों का सही पालन-पोषण करना ही नहीं आता। मध्य वर्गीय परिवारों में अक्सर बच्चे अभिशप्त होते हैं।  न तो वे हर तरह की सुख सुविधाओं में पलते हैं और न ही अभाव में।  उनके मन में अनगिनत सपनों का संसार होता है जो एक सपना ही रह जाता है। उनकी आंखे कभी ख़ुशी से चमकती ही नहीं।

यदि उनके इन छोटे-छोटे सपनों को पूरा करने का झूठा आश्वासन मिले तो वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं और यहीं से शुरू होता है गलतियों का एक अनंत सिलसिला जो धीरे धीरे अपने पांव कहीं गहरे तक जमा लेता है और जिसके तहत कई जिंदगियां बर्बाद हो जातीँ हैं। काश, हम जान पाते इन बच्चों के मन में सपनों की वीरान दुनियां कितनी सुन्दर होती है !!

बच्चों को पालना सिर्फ खाना देने और कपडे देने से कहीं ज्यादा होता है यह अधिकांश लोग भूल जाते हैं।  सबसे पहले हर एक  मां-पिता को अपने बच्चों का बेहतरीन दोस्त होना चाहिये। बच्चों की छोटी सी दुनियां में मां और पिता का स्थान ऊंचा होना चाहिये लेकिन हम तो उनको जितना हो सके दूर ही रखते हैं कि बच्चे सिर न चढें।  जब हम उनसे इतनी दूरी बनायेंगे तो कैसे अपने मन की परेशानियां हमें बतायेंगे ?

मैंने जहां तक गौर किया है परिवारों में बच्चों को मार-पीट कर , डरा-धमका कर रखना ही उचित माना जाता है लेकिन ये तो बेहूदा तरीका है क्योंकि जो अपने मां-पिता को देखने से ही डरेंगे वो कैसे अपनी परेशानियां उनसे बताने की हिम्मत करेंगे ? फिर कौन सुलझाएगा उनकी परेशानियों को ?

एक बच्चे को अच्छे बुरे का ज्ञान होने की कोई पक्की उम्र नहीं होती लेकिन उनकी बातों को अहमियत देने की उम्र पक्की होती है।  जब वे कमाने लगें तो उनकी बात को सुना जाता है और दुर्भाग्यवश यदि वो कमाने का अवसर नहीं पाते तो उनकी कोई अहमियत ही नहीं होती।  अब सोचिये यदि घर में कोई उनकी बात ही न सुने तो वो क्या करेंगे ? जो उनको अहमियत देंगे वहीँ वो जायेंगे और खुदा न खास्ता यदि जगह गलत हो तो फिर कहने को कुछ रहा ही नहीं। बच्चे गलत और सही का भेद नहीं जानते लेकिन प्यार और नफरत का भेद बहुत ही जल्दी जान जाते हैं!!

पहले परिवार और मन दोनों ही बड़े होते थे लेकिन देखा-देखी  में हम न घर के रहे न घाट के। परिवारों में सही सलाह देने के लिए समय और व्यक्ति ही नहीं रहते।  रही सही कसर फिल्म पूरी कर देतीं हैं।  दुनियां की सारी बातें बच्चे फिल्म से सीखते हैं।  अपराध तो सच कहें तो कोई जानकर नहीं करते लेकिन यदि भूले भटके कोई गलती हो भी गयी तो उसे छिपाने का सिलसिला लगातार चलते ही रहता है।

मेरे मन में अक्सर यह सवाल आता है कि मासूम बच्चे जो गुनहगार बन जाते हैं समाज के चंद शरीफजादोँ के कारण , उनको सजा क्यों नहीं होती ? एक मासूम को बेवजह गुनहगार बनाया जाता है सिर्फ खाना देकर।  हमसे तो बेहतर होते हैं रईसों के घरों में पलते विदेशी नस्ल के कुत्ते , कम से कम उनके खाने पीने का अच्छा ख्याल तो रखा जाता है , इंसान तो जो गरीबी में पलते हैं कुत्तों से भी बदतर बना दिए जाते हैं।

अक्सर गरीब बच्चों को छोटे-मोटे कामों के लिए रखना साधारण बात होती है लेकिन उन मासूम निगाहों से कुछ भी छिपाया नहीं जाता और सब कुछ सीखने का दुर्लभ मौका उनको बहुत ही आसानी से उपलब्ध किया जाता है। यदि इन गलीच जगहों से वो बच सके तो उनका भाग्य, वरना ज्यादातर यहीं से शुरू होता है बीजारोपण एक अबोध मन में जिसको दुनिया की कोई भी ताकत नहीं बदल सकती और सही मौका मिलते ही बीज बड़ा वृक्ष बन जाता है। हम कहानियों और फिल्म में हर बात समझ जाते हैं लेकिन यथार्थ में हमारी आंखों को कुछ नजर ही नहीं आता। कितने ही उम्दा स्तर की फिल्म हम देखते हैं लेकिन जिंदगी में हमें सच्चाई निगलना तो दूर देखना ही नागवार होता है।

छोटे-छोटे बच्चों की खरीद-फरोख्त आम बात है बड़े-बड़े शहरों में , लेकिन उनपर पर्दा डाल दिया जाता है ताकि कानोकान खबर न हो।  इज्जत भी बड़ी अजीब चीज है , उसको बचाने के चक्कर में हम सब कुछ भूल जाते हैं।
अपने बच्चे , परिवार , जिंदगी का मकसद , आपसी रिश्ते और समाज में अपनी जगह , मेरी नजर में ये सब नकली है लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती इन अनदेखे-अनसुने कानूनों को अनदेखा करने की !!

अनगिनत परिवारों में बच्चे थोड़े समझदार होते ही अपनी अलग दुनियां में मशगूल हो जाते हैं। मां -पिता से रिश्ता रखना ही नहीं चाहते क्योंकि बचपन में उनकी बातों को महत्त्व नहीं दिया गया और इस छोटी सी गलती
की सजा वो अपने मां-पिता को देने के लिए हर कुछ करने को तैयार होते हैं , चाहे वो गलत काम ही क्यों न हो!!  सिवाय आंसू भरी आंखो के कुछ दिखता ही नहीं। बड़ी मुश्किलों से बच्चों को बड़ा करने के पश्चात खोना कितना दुखदायी होता है ये तो हम जानते हैं लेकिन अपने बीच की छोटी सी दूरी कम करने का प्रयास करने में अपनी तौहीन समझकर अपना सपनों का संसार उजड़ने देखकर आंसू बहाने वाले अनगिनत लोगों को कैसे समझाएं पता नहीं!!

मैं शाम में अपना समय व्यतीत करने और थोड़ी बहुत सहायता करने के उद्देश्य से घर में क्लास लेती हूं।  मेरे पास बच्चों से लेकर मेरे हमउम्र और कभी-कभी ज्यादा उम्र वाले लोग भी आते हैं।  6 महीने के छोटे से अवकाश में वे मुझसे अपनी परेशानियां बांटने की हद तक करीब आ जाते हैं।  मैं अक्सर यह सोचकर आश्चर्य करती हूं कि मन में इतना भार उठाये ये जवान युवक कैसे खुश रहेंगे और इनको खुश रखना कितना आसान है , क्यों इनके परिवार से इनको ये अलगाव मेरे पास लाता है ?  थोड़ा सा समय ही मैं उनको देती हूं लेकिन इसके अभाव में कितने ही युवक गलत दिशा में भटकते हैं , कौन दोषी है बच्चे या परिवार ?

एक हद तक बच्चे अपनी सारी परेशानियां घर में बता कर हल्का महसूस करते हैं लेकिन वहीं थोड़े बड़े होने के बाद नहीं करते क्योंकि एक छोटी सी दूरी हमारे बीच आ जाती है जो हम जानकार होते हुए भी अनजान बनकर अनदेखा करते हैं और यह दूरी हमारी सारी खुशियां निगल जाती है।  मेरा हर मां-पिता से ये अनुरोध है कि अपने बच्चों से दोस्तों की तरह रहना सीखें ताकि बच्चे भी खुश रह सकें और हम भी , आखिर उनको भी दूसरे मां -पिता नहीं मिलेंगे और हमें भी बच्चे , फिर क्यों ये खींचातानी ? अनगिनत युवक गलत आदतों के शिकार हो जीवन विषमय बना लेतें हैं और लड़कियां गलत जीवन साथी चुनकर पछतातीं हैं लेकिन उसकी जड़ में सिर्फ थोड़ा सा प्यार ही होता है।

मैंने लोगों को मन्नत मांगते देखा है बच्चों के लिये और अनाथ बच्चों को रोते देखा है मां और पिता के प्यार के लिये ठीक उसी तरह सब कुछ होते हुये बेबस परिवारों को भी देखा है।  मेरा मन तरस खाता है उनपर क्यों ये इनके पास इतनी सम्पदा होते इतने गरीब हैं ? लेकिन सच तो ये है की इनका मन नीचे उतरना ही नहीं चाहता और दूर से हर चीज सुन्दर लगती है!!

जिन परिवारों में पैसों का अभाव होता है वो पैसों को महत्त्व देकर बाकी बहुत सारी चीजों को नज़र अंदाज़ कर देते हैं और जो पैसों की कमी देखे बिना पलते हैं वो रिश्तों को ज्यादा अहमियत देते हैं।  ज्यादातर मध्य वर्गीय परिवारों में बच्चे थोड़ी खींचा-तानी में ही पलते हैं लेकिन यदि अच्छी जगह नौकरी मिल गयी तो बहुतायत परिवारों में मां-पिता को बोझ समझने की प्रवृत्ति दिखाई देती है जो मुझे हरगिज़ ठीक नहीं लगती।  मेरे विचार में बच्चों को दूसरे माता -पिता और माता -पिता को दूसरे बच्चे मिलना नामुमकिन है फिर क्यों रिश्तों को ख़त्म करने जैसा व्यवहार करें ? कोई भी शुभ-दिन बिना याद में आंसू बहाये बीत ही नहीं सकता फिर क्यों ये अकड़ जो रिश्तों को खोखली कर दे ?

आजकल तो ये छोटे परिवारों का चलन रिश्तों का दुश्मन है उसपर रही सही कसर हमारी बेवकूफियां पूरी कर देतीं हैं।  रिश्तों के होते रिश्तों के बिना रहने से रिश्तों के बिना रहना ही बेहतरीन होगा।  आजकल तो अधिकांश परिवारों  में सिर्फ एक ही बच्चा देखना आम हो गया।  मामा , मौसी , मामी , मौसाजी जैसे रिश्तों की महक से अनजान ये मासूम बच्चे विदेशों में पलने का भाग्य होते हुए भी बद-नसीब ही होंगे क्योंकि प्यार से रोटी सब्जी खिलाने वाली नानीमा से उनका वास्ता ही न होगा।  गर्मियों में धूप की परवाह किये बिना चोरी-छिपे खेलने का मजा तो वो जान ही नहीं सकते।  इमली , अमरुद , बेर , आम , कटहल खाने का मजा उनको मालूम ही न होगा लेकिन उनको ये कमी महसूस भी न होगी क्योंकि रिश्तों की खुशबू से अनजान ही उनका बचपन बीतेगा।

आज भी नानाजी और नानीमा की याद दिल में एक हूक सी उठाती है लेकिन खुशी है कि हमने इतना निश्छल प्यार पाया जो अब ढूंढेंगे तो भी न मिलेगा।  प्यार की परिभाषाएं बिलकुल ही बदल चुकीं हैं। हम ही बेवकूफों की तरह रेगिस्तान में पानी ढूंढ रहें हैं शायद। भूले न जा सकेंगे वो बचपन के दिन , धूप में मुर्गा बनाने वाले मामाजी, बच्चों के आपसी लड़ाई-झगड़े चुटकियों में सुलझाने वाली और जल्दी-जल्दी गरम और स्वादिष्ट खाना खिलाने वाली नानीमा , हर चीज में मजा लेने वाले नानाजी , हम सबको बैठाकर मजेदार कहानियां सुनाने वाले मामाजी जो हमेशा ही हमारे दिलों और दिमाग पर अपना असर छोड़ गए और जिनसे हमने ग़ज़ल सुनना, समझना सीखा , हम भाई और बहनों की फ़ौज जो हर गर्मी की छुट्टियों का इंतजार करतीं थीं और जिनकी अब सिर्फ यादें हीं हैं , समय तो पंख लगाये उड़ गया।मामाजी की याद आते ही खुद ब खुद आंखें नम हो जातीं हैं।  मेरे बचपन की यादों में मामाजी और नानीमा , नानाजी का ही आधिपत्य है। हम लगभग सालाना एक बार मिलते ही थे। विपिन मामाजी की यादें ज्यादा हैं शायद इसलिए कि उन्होंने हमारे साथ ज्यादा समय बिताया।  छोटी-छोटी बातें भी हमने उनसे सीखीं।  हम दोनों बहनो को चलते समय कैसे घुटने आपस में रगड़े बिना चलने से लेकर छोटी-छोटी कई बातें उन्होंने सिखाईं जो इतना जमाना गुजरने के बाद भी मन में तरोताजा हैं।

इंसान का मन भी एक अजीब होता है , जब पास हो तो अपनी भावनाओं को छिपाता है और दूर होने पर साथ के लिये तरसता है। जब अपने बच्चों को देखते हैं तो एहसास होता है गुजरे समय का। आज भी वो सदाबहार ग़ज़ल कानों में गूंजती है. .... ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो , भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी , मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन , वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी …काश !! ऐसा हो पाता।  

अस्तित्व की पहचान

ऐ मेरे उदास मन , चल दोनों कहीं दूर चलें , मेरे हमदम तेरी मंजिल, ये नहीं ये नहीं कोई और है.. . …                 ऐसे ही सोचते सोचते मेरी जिंदगी चली जा रही है और मैं भी पीछे-पीछे एक मूक दर्शक बना चला जा रहा हूं। कहां तक चलना है , कहां ठहरना है कुछ नहीं पता , समय अपनी रफ़्तार से पंख पसारे चलता रहता है और मैं भी. . .
आज तकरीबन लगभग मेरी आधी उम्र गुजरने के बाद मुझे अचानक यह अहसास होना सभी के लिए उपहासजनक हो सकता है लेकिन मेरे लिए मेरे अस्तित्व की पहचान की शुरुवात कहना ही उपयुक्त होगा। इतनी दूर सफर तय करने के बाद क्यों ये अजीब सी उथल-पुथल मन को बावला बना रही है ? मैंने अपने मन को झिंझोड़ना चाहा लेकिन मेरा मन तो अतीत में गोते लगा रहा था , सबसे बेखबर , जब मैं 25 का था और जिंदगी का हर पड़ाव बेहद खूबसूरत।
पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने नौकरी करना बेहतर समझा और फिर शुरू हुआ एक अनंत सिलसिला चुनाव का , हर किसी जगह में कोई न कोई नुक्स निकल ही जाता था।  यदि मुझे पसंद होता तो भैया मना करते और यदि सबको पसंद होता तो शहर दूर होने से, वहां भेजने की सहमति नहीं मिलती। इसी उधेड़बुन में मैं थोड़ा उदास सा हो चला था।  मेरे कई सहपाठी दूसरे शहरों में थे और कई  व्यापार करने को उत्सुक नजर आ रहे थे , लेकिन कोई भी मुझ जैसा नहीं था जो न इस तरफ न उस तरफ हो।
आखिरकार मैंने सभी का लिहाज करने से बेहतर फैसला करना समझा और पास ही के शहर में कॉलेज में पढाने का अवसर जाने न दिया , हालांकि थोड़ी नाखुशी महसूस की परिवार से अलग होने में, फिर खुद को समझा लिया।  आज मैंने खुद की नज़रों में अपने को एक जिम्मेदार इंसान पाया और एक आत्म तृप्ति महसूस की। दिन सप्ताह और सप्ताह महीने में बदले और मेरी पहली तनख्वाह मिली जिसका हर किसी को बेसब्री से इंतजार होता है।
बचपन से ही मैं थोड़ा डरपोंक रहा हूं और अपने फैसलों को ज्यादा महत्त्व न देकर दूसरों के विचारों को सहजता से स्वीकार कर अच्छा महसूस करता रहा हूं लेकिन यही मेरी एक बड़ी भूल बन चली थी क्योंकि परिवार में मुझसे कोई भी मशविरा लेना जरुरी ही न  समझा गया।  यहां तक कि मेरी शादी का फैसला भी मेरे अलावा सभी ने लेना अपना अधिकार समझा। नौकरी के लिए जैसे मैंने अपने आप को बेहद कमजोर पाया उसी तरह इस विषय में भी।  अब चुप रहना गलत लगने लगा था सो मैंने अपनी छोटी बहन से कहा कि मैं अभी शादी नहीं करना चाहता और छोटी की शादी के बाद ही अपने बारे में सोचूंगा।  ताज्जुब हुआ कि मेरी बात का कोई विरोध ही नहीं हुआ , तो फिर मैं क्यों बेवकूफ की तरह हर मामले में अपनी राय ही न जाहिर करने की गलती इतने सालों से करता रहा ? यहीं तो संस्कारों के नाम पर हम  मारे जाते हैं।
पिताजी का असमय देहावसान मुझे बेहद कमजोर और भैया को सब फैसले करने का अधिकार अनायास ही दे गया जिसका कोई भी विरोध मैंने किया ही नहीं।  भैया जैसा कहते वैसा ही होता और सिवाय मेरी  नौकरी के मैंने कभी कोई कमी भी महसूस न की।  अम्मा तो सिर्फ नाम के लिए हां या ना कहतीं थीं और इस बीच लगभग 15 साल गुजर गए और हम सभी पहले की तरह नादान न रहे।  लेकिन फिर भी सबकी उम्मीदें वैसी ही हैं जैसी कभी थीं। परिवार की जिम्मेदारियों की ही तरह महत्त्व भी देना जरूरी था जो जरूरी ही न समझ गया , शायद सबकी नज़रों में मैं छोटा ही रह गया।  बहन की शादी , फिर मेरी शादी और फिर परिवार में बच्चों का आगमन सब कुछ बदलने लगा था लेकिन अब भी मुझे मेरा अस्तित्व होने का भान ही न था।  मेरी पत्नी विभा कभी ताने देती तो थोड़ा दर्द सा होता था जो तुरंत ही गायब भी हो जाता था , और ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से चलती रही।
मेरे दोनों बेटों को मैंने बिना किसी भेद के पालना चाहा और कुछ विरोध के बाद परिवार से अलग होने का फैसला किया , अपने लिए नहीं विभा और बच्चों के लिए।
मैं मेरी तरह मेरे दोनों बेटों को देखना नहीं चाहता था, बिना रीढ़ के कैसे भला कोई जी सकता है ? तो फिर इतने साल मै कैसे जिया ? क्यों जिया ? क्या मिला ? इज्जत , प्यार या कुछ भी नहीं ? जिसे मैंने इज्जत समझा उसे सबने नाकामी कहा और जिसे मैंने संकोच कहा उसे सबने डर का नाम दिया।
सच तो था न , आज जब सभी अपनी इच्छाओं को महत्व देना बेहतर समझते हैं मैं हमेशा दूसरों को ही बातों को महत्त्व देता रह गया और जिंदगी के हर पड़ाव पर खुद को बहुत पीछे पाया।  शिकायत करता भी तो कैसे ? यह तो मेरा अपना स्वभाव था और जिसकी पिताजी ने हमेशा ही बड़ाई की थी।  तो क्या मैंने अपने पिताजी के अनुसार खुद को ढाला और उनके बाद खुद को अकेलेपन में खो दिया ? उनके बाद मैंने खुश रहना , अपने लिए कुछ पूछना यहां तक कि खाने पीने में भी एक अजीब सी उदासी से खुद को घिरा पाया मानो मैं अनाथ हो गया और दूसरों की दया पर ही जी रहा हूं।  ऐसा किसीने कहा तो नहीं लेकिन मैं ऐसे ही ढल गया।
 मेरी दुनियां वीरान थी जिसमे ख़ुशी का नामोनिशान न था। जैसे तैसे पढ़ लिया और नौकरी भी कर ली , शादी के बाद बच्चे भी बड़े हो चले थे।  एक दिन अनायास ही मेरे छोटे बेटे ने पूछा, "पापा आप क्यों हमेशा उदास रहते हैं? ,आपको क्या चाहिए? बोलो न, मैं बड़ा होकर लाऊंगा" मेरी आंखें छलछला गयीं।  ठीक ऐसा ही तो मैंने भी सोचा था अपने पिताजी के बारे में ! नहीं हरगिज नहीं , मैं अपने बेटे को उसी सांचे में ढलने नहीं दूंगा , हरगिज नहीं ! जैसे मैं गहरी नींद से जागा होऊं।
अक्सर ही परिवारों में ऐसा होता है और उसमे कुछ गलत भी नहीं।
बच्चों को उनके अस्तित्व का भान होने की एक उम्र होती है, जब सभी उनपर ध्यान देते हैं यदि समय रहते उनको ये एहसास प्रबलता से होता हो तो सब सही बन जाता है और नहीं तो फिर कोई उनपर ध्यान ही नहीं देते और हमेशा ही मेरी तरह एक अजीब से एहसास में जिंदगी गुजारने पर मजबूर हो जाते हैं।
मैंने एक संकल्प लिया और पूरी तरह दृढ़ता से उस संकल्प को साकार रूप देने में जुट गया। 

रिश्तों की एहमियत

हर रिश्ते की एक एहमियत और खुशबू होती है जो प्रायः हमें बिछोह से न केवल विचलित अपितु मृत बना जाती है।  लोग कहते हैं समय से बेहतर कोई मरहम नहीं लेकिन यह हर रिश्ते के लिए सही नहीं।  कुछ रिश्ते आजन्म हमें अपनी कमी का एहसास दिलाते ही रहते हैं।

मां -पिता , भाई -बहन , पति -पत्नी और लगभग हर रिश्ते में एक मिठास और सुंदरता है जो अन्यत्र दुर्लभ है लेकिन उनकी खुशबू बरक़रार रखने के लिए हमारी तरफ से कितनी कोशिशें करते हैं यह मद्दे नजर रखने काबिल है।  बचपन तो दूसरा कोई चारा न होने से साथ बिताना ही पड़ता है लेकिन जब हम पंछी बनकर पंख पसारे दुनिया का चक्कर लगाने के बाद लौटने पर अपनों की याद करते हैं और न मिल पाने की कसक हूक में बदलते देखकर अपनी आंखें बिना किसी के ध्यान में आये पोंछते हैं , तब ही तो पता चलता है वियोग का और रिश्तों की गहराई का।  चाहे हम कितना भी दम भर लें दोस्ती का लेकिन जो रिश्ते भगवान बनाता है वो कभी भी कमजोर नहीं होते।

मैं सबसे दूर यहां दक्षिण में आ तो गयी लेकिन जब पापा के दशगात्र में सबसे मिली तो मुझे ही ताज्जुब हुआ क्योंकि मेरी आंखें लगातार बहती ही जा रहीं थीं।  मेरे मौसाजी ने जो अब  न रहे , मेरा सर सहलाकर कहा , "इतना सारा प्यार मन में छुपाये कैसे नीलू तू वहां रहती है ?" मैं तो सच कैसे जीती हूं समझ न पाई लेकिन एक कमी सी है जो शायद कभी पूरी ही न हो पाएगी। कभी कभार लगता है काश मैं एक पंछी होती !!

लगभग यहां आकर 23 साल हो गए लेकिन आज भी मन में एक कमी महसूस होती है और एक दर्द भी , जिसकी पूर्ति सिर्फ उन रिश्तों से ही हो सकती है , हालांकि यहां मैंने नए रिश्ते बनाये लेकिन फिर भी मन में एक अजीब सा खालीपन अक्सर ही मुझे विचलित करता है। क्या करें, शायद इसे ही किस्मत का खेल कहते हैं !

मैंने दक्षिण में आकर लगातार खुद को कई तरह की सामुदायिक विकास और सुधार की प्रक्रियाओं से जोड़ रखा है और इसमें मैं अपनी कमियों को भूलकर खुश रहने में सफल होती हूं।  शहरों की अपेक्षा हम ग्रामों में ज्यादा गहराई से जुड़ने का मौका पाते हैं और एक तृप्ति भी जो जीवन को स्थगित नहीं होने देती। मैंने शायद ही कभी बड़े शहरों में रहना पसंद किया हो , मेरे दोस्त मुझे अक्सर ही झिड़कते थे और मजाक भी उड़ाते थे क्योंकि मैं बेहद ही सादगी से रहती थी और अब तक वैसी ही हूं जैसी थी , लेकिन मैं इसे एक अच्छी बात समझती हूं कि मैं एक बिलकुल ही नए परिवेश में रहने में सफल हो सकी।