जब जब भी छोटे छोटे बच्चों को थिरकते देखती हूं अनायास ही मुस्कुरा देती हूं अपने बीते दिनों को याद कर। आजकल तो बच्चों से बचपन ही छिन चुका है। बस्तों का बोझ उठाये पीठ झुक जाती है। परिवारों में अब चहलपहल सिर्फ कभी-कभार ही होती है। कमरे में सिमट आयी है उनकी छोटी सी दुनिया। खाना भी सब कहां साथ खाने मिलते हैं। सब अपनी सुविधा से खाते हैं। परिवार में सबके साथ होने का दिन सिर्फ रविवार हो गया है। उसमे भी मित्रों का साथ ज्यादा पसंद किया जाता है। बढ़ती महंगाई ने परिवारों में मेल मिलाप ही नहीं बहुत सारी खुशियां जिनका पैसों से रिश्ता ही नहीं, छीन ली और अधिकांशतः बच्चे पढ़ाई और ज्यादा अंक लेने की प्रतिस्पर्धा में चिंताओं का बोझ उठाये फिरते हैं जिनको हंसाने के लिए दूरदर्शन कार्यक्रम भी सफल नहीं होते।
मुझे एक बात कभी भी समझ नहीं आयी कि क्यों सभी उनके बच्चे सबसे ज्यादा अंक लेने की अंधी दौड़ में लगातार बच्चों को ढकेलने में गर्व महसूस करते हैं। बच्चों को भी जीने का और हमारी ही तरह बचपन में बचपना करने की स्वतंत्रता जरूर मिलनी चाहिए। हम दुर्भाग्यवश उनसे बहुत कुछ अनजाने ही छीनने की गलती करते हैं। जिस दिन 12 का रिजल्ट आना होता है , बच्चे मेरे घर में होते हैं , ज्यादातर उनको अपने मां और पिता का सामना करने का धैर्य नहीं होता। आखिर क्यों ये डर , ये बेहूदगी नहीं तो और क्या है ? रिजल्ट देखने के बाद भी उनके चेहरों पर खुशी नहीं झलकती , पूछने पर पता चलता है कि उनके घर में बहुत ज्यादा अपेक्षाएं थीं और उनको घर जाने पर डांट और मार मिलेगी। लगभग दो घंटों के बाद ही बच्चे घर जाने की सोचते हैं।
चाहे जितना भी लगाव हो बच्चे तो माता पिता से अलग न होंगे लेकिन जो अपनी परेशानियां वे मुझसे बताकर मन का भार हल्का करते हैं क्या वो अपने परिवार से करने हिचकते हैं ? हरगिज नहीं। मन में संकोच होना चाहिए लेकिन डर कतई नहीं क्योंकि यही तो कभी कभी बच्चों के गलत निर्णय लेने के लिए उत्तरदायी होता है। मैंने बहुत माता पिता को ये कहते सुना है कि यदि वो अधिक अंकों से उत्तीर्ण न होंगे तो वे उन्हें नहीं पढ़ाएंगे या गाड़ी नहीं लेकर देंगे। हर माता पिता का अपने बच्चों से अपेक्षा रखना स्वाभाविक है लेकिन हर बच्चे की क्षमताओं में फर्क होता है और हमें कभी भी दूसरों के बच्चों से तुलना करने की गलती नहीं करनी चाहिए।
अधिकतः जो बच्चे सिर्फ पढने में दिलचस्पी रखते हैं उनको अतिरिक्त विषयों का ज्यादा ज्ञान और रुझान नहीं होता लेकिन जो पढने में ज्यादा आगे नहीं होते वे कई तरह की अभिरुचियों में उत्कृष्ट पाये जाते हैं। यदि उनकी अभिरुचियों का थोड़ा ख़याल रखकर प्रशंसा करने के बाद उनसे हम थोड़ा अधिक प्रयास करने का अनुरोध करें तो यकीन कीजिये उनका स्तर ऊंचा होगा और हमें भी कोई शिकायत नहीं रहेगी। जब मैं दसवीं कक्षा में थी कई सहपाठियों को मैंने इंग्लिश ग्रामर समझाया और वे सब उम्मीद न करने की हद तक अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो मेरे दोस्त बन गए थे क्योंकि उनके परिवारों में इस विषय में ही सभी अनुत्तीर्ण हो चुके थे। थोड़ी सहानुभूति और समझदारी से कई चीजों में हमें बदलाव मिलता है लेकिन हम दूसरों को बदलना चाहते है खुद बदलना नहीं।
जब हम उनकी तुलना दूसरे बच्चों से करते हैं उनमे ईर्ष्या का जन्म होता है जो समय के साथ द्वेष में बदलती है और ऐसा घर में हो तो फिर बच्चे कैसे सहज रूप से एक दूसरे से रिश्ता सकेंगे ? हम अनजाने ही उन्हे गलत बातों का हिस्सा बनाते हैं और फिर दोषी उन्हें ही ठहराते हैं जो कतई ठीक नहीं। बच्चों का जिद करना स्वाभाविक है लेकिन जब हम उनकी हर जिद को नजरअंदाज किये बिना उनकी मानते हैं तब जिद्द उनके स्वभाव में
शामिल हो जाती है। यदि स्नेह से समझाया जाए तो बच्चे बहुत जल्द समझ जाते हैं। कैसे वे बर्ताव करेंगे और कब उनकी बातें चाहे गलत ही क्यों न हों , मानी जाएंगी ये वे 2 साल की उम्र के भीतर ही अच्छी तरह जान लेतें हैं , हम ही उन्हें इन बातों का ज्ञान नहीं सोच स्वयं को धोखा देते हैं। बच्चे बेहद संवेदनशील और बुद्धिमान होते हैं उन्हें कृपया उनके बचपन का पूरा मजा लेने दीजिये। तब ही तो वे हमारी तरह यादों की धरोहर मन में संभालकर रखेंगे न !
इतनी उम्र होने के बावजूद हमारे चेहरे पर पुरानी बचपन की यादें एक चमक लातीं हैं न ? तो फिर क्यों न हमारे बच्चे भी इसे एक तरफ मन में धरोहर जैसे संभालें ? उनको भी मौक़ा तो चाहिए न !!
मुझे एक बात कभी भी समझ नहीं आयी कि क्यों सभी उनके बच्चे सबसे ज्यादा अंक लेने की अंधी दौड़ में लगातार बच्चों को ढकेलने में गर्व महसूस करते हैं। बच्चों को भी जीने का और हमारी ही तरह बचपन में बचपना करने की स्वतंत्रता जरूर मिलनी चाहिए। हम दुर्भाग्यवश उनसे बहुत कुछ अनजाने ही छीनने की गलती करते हैं। जिस दिन 12 का रिजल्ट आना होता है , बच्चे मेरे घर में होते हैं , ज्यादातर उनको अपने मां और पिता का सामना करने का धैर्य नहीं होता। आखिर क्यों ये डर , ये बेहूदगी नहीं तो और क्या है ? रिजल्ट देखने के बाद भी उनके चेहरों पर खुशी नहीं झलकती , पूछने पर पता चलता है कि उनके घर में बहुत ज्यादा अपेक्षाएं थीं और उनको घर जाने पर डांट और मार मिलेगी। लगभग दो घंटों के बाद ही बच्चे घर जाने की सोचते हैं।
चाहे जितना भी लगाव हो बच्चे तो माता पिता से अलग न होंगे लेकिन जो अपनी परेशानियां वे मुझसे बताकर मन का भार हल्का करते हैं क्या वो अपने परिवार से करने हिचकते हैं ? हरगिज नहीं। मन में संकोच होना चाहिए लेकिन डर कतई नहीं क्योंकि यही तो कभी कभी बच्चों के गलत निर्णय लेने के लिए उत्तरदायी होता है। मैंने बहुत माता पिता को ये कहते सुना है कि यदि वो अधिक अंकों से उत्तीर्ण न होंगे तो वे उन्हें नहीं पढ़ाएंगे या गाड़ी नहीं लेकर देंगे। हर माता पिता का अपने बच्चों से अपेक्षा रखना स्वाभाविक है लेकिन हर बच्चे की क्षमताओं में फर्क होता है और हमें कभी भी दूसरों के बच्चों से तुलना करने की गलती नहीं करनी चाहिए।
अधिकतः जो बच्चे सिर्फ पढने में दिलचस्पी रखते हैं उनको अतिरिक्त विषयों का ज्यादा ज्ञान और रुझान नहीं होता लेकिन जो पढने में ज्यादा आगे नहीं होते वे कई तरह की अभिरुचियों में उत्कृष्ट पाये जाते हैं। यदि उनकी अभिरुचियों का थोड़ा ख़याल रखकर प्रशंसा करने के बाद उनसे हम थोड़ा अधिक प्रयास करने का अनुरोध करें तो यकीन कीजिये उनका स्तर ऊंचा होगा और हमें भी कोई शिकायत नहीं रहेगी। जब मैं दसवीं कक्षा में थी कई सहपाठियों को मैंने इंग्लिश ग्रामर समझाया और वे सब उम्मीद न करने की हद तक अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो मेरे दोस्त बन गए थे क्योंकि उनके परिवारों में इस विषय में ही सभी अनुत्तीर्ण हो चुके थे। थोड़ी सहानुभूति और समझदारी से कई चीजों में हमें बदलाव मिलता है लेकिन हम दूसरों को बदलना चाहते है खुद बदलना नहीं।
जब हम उनकी तुलना दूसरे बच्चों से करते हैं उनमे ईर्ष्या का जन्म होता है जो समय के साथ द्वेष में बदलती है और ऐसा घर में हो तो फिर बच्चे कैसे सहज रूप से एक दूसरे से रिश्ता सकेंगे ? हम अनजाने ही उन्हे गलत बातों का हिस्सा बनाते हैं और फिर दोषी उन्हें ही ठहराते हैं जो कतई ठीक नहीं। बच्चों का जिद करना स्वाभाविक है लेकिन जब हम उनकी हर जिद को नजरअंदाज किये बिना उनकी मानते हैं तब जिद्द उनके स्वभाव में
शामिल हो जाती है। यदि स्नेह से समझाया जाए तो बच्चे बहुत जल्द समझ जाते हैं। कैसे वे बर्ताव करेंगे और कब उनकी बातें चाहे गलत ही क्यों न हों , मानी जाएंगी ये वे 2 साल की उम्र के भीतर ही अच्छी तरह जान लेतें हैं , हम ही उन्हें इन बातों का ज्ञान नहीं सोच स्वयं को धोखा देते हैं। बच्चे बेहद संवेदनशील और बुद्धिमान होते हैं उन्हें कृपया उनके बचपन का पूरा मजा लेने दीजिये। तब ही तो वे हमारी तरह यादों की धरोहर मन में संभालकर रखेंगे न !
इतनी उम्र होने के बावजूद हमारे चेहरे पर पुरानी बचपन की यादें एक चमक लातीं हैं न ? तो फिर क्यों न हमारे बच्चे भी इसे एक तरफ मन में धरोहर जैसे संभालें ? उनको भी मौक़ा तो चाहिए न !!