Monday, September 28, 2015

शायद आप भूल गए

इंसान को भगवान ने बेहद संवेदनशील , समर्थ और बुद्धिमान बनाया ताकि वह हर स्थिति में जीत कर एक मिसाल साबित हो लेकिन हद हो गयी यार इस शख्स ने तो भगवान को भी ललकारा अपने घमंड में चूर होकर। एक दिन यूं ही भगवान से क्यों न मिलें सोचकर एक महाशय निकले।  सीधे जाकर भगवान से कहा मैं आपसे कुछ प्रश्न करना चाहता हूं।  भगवान ने कहा ठीक है।

मैं क्यों आपकी पूजा करूं ? पहले जब इंसान ने किसी भी तरह की प्रगति नहीं की थी तब तक ठीक था लेकिन आज के समय में जब मैं अपना प्रतिरूप भी बनाने की हैसियत रखता हूं और अपनी मर्जी से जब चाहूं धरती और आसमान पर रह सकता हूं , मुझे कोई वजह नहीं दिखती कि मैं आपकी पूजा करूं।  उसने स्वाभाविकतया  ही जवाब की अपेक्षा मेँ भगवान का चेहरा थोड़े घमंड से देखा।  प्रश्न सुनकर भगवान मुस्कुराये।

उन्होंने पूछा ,"मैंने तो आज तक किसी से मेरी पूजा करने की अपेक्षा ही नहीं की औरऔर न ही कुछ मांगा।  ये तो आप लोग अपनी ही मर्जी से मुझे बिठाकर सवालों की बौछार से परेशान कर रहे हो।"

"ठीक है ऐसा ही समझें जैसा कि आपने कहा , क्या आप अभी इसी समय एक इंसान बना सकते हैं ?"

वह गर्व से उपेक्षा भरी हंसी हंसकर इस सवाल का जवाब देने के लिए तैयार हो गया।  भगवान ने उत्तर जैसा कि अपेक्षा थी पाया।
 "जरूर , अभी इसी वक़्त,"
"आप जैसे इन्सान बनाएंगे , ठीक वैसे ही मैं बनाकर दिखाता हूं ,"

वह यह कहकर मिट्टी लेने को झुका , तब भगवान ने मुस्कुराते हुए कहा , "नहीं ,नहीं  , नहीं  , यह तो मेरी बनाई दुनिया है , तुम तुम्हारी दुनिया से मिट्टी लेकर आओ "

यह सुनकर वह उतरा चेहरा लिए लौट आया।  भगवान ने अपना काम संभाला।

गलत और सही

आज शाम अचानक पड़ोस के घर से तेज आवाजें आने से मेरा ध्यान सहज ही वहां चला गया , नजारा बेहद ही नाजुक था।  पति और पत्नी किसी छोटी सी बात पर झगड़ रहे थे , बच्चे किसे गलत और किसे सही कहें समझ नहीं पा रहे थे।  चारों तरफ चिल्लाहट सभी को परेशान और लज्जित कर रही थी।  बातें बिना वजह बड़ी होती जा रही थी और आखिरकार नौबत "क्या तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता/सकती?" तक जा पहुंची।  हम पडोसी कुछ भी न कर सके क्योंकि यह उनका जातीय मामला था और हस्तक्षेप नागरिकता की सीमा से परे था।

अगले ही दिन मेरी सहेली ने आनन फानन में घर छोड़ने का फैसला गुस्से में कर लिया , जबकि हमने समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वो अपने पति को एक सबक सिखाना चाहती थीं। एक हद तक समझाने के बाद हमने चुप रहना बेहतर समझा और झगडे की आखिरी हद अलगाव में तब्दील हो गयी।  जब तक एक छत के नीचे थे किसी न किसी तरीके से समझौता होने की गुंजाइश थी लेकिन अलग होने के बाद गुस्सा नफरत और अलगाव एक अजीब तरह के प्रश्न ले आया।   क्यों मैं ही पहल करूं ? क्या मुझे अकेले जीना नहीं आता ? क्यों हमेशा मैं ही स्त्री होने की सजा भोगूं ? यदि उनको पत्नी की जरूरत हो तो आने दो समझौते के लिए , इस तरह की बातों ने उनकी पारिवारिक स्थिति को एक नया रूप देकर विकृत कर दिया और मासूम बच्चे मां -पिता के अहम भाव के तहत मूक दर्शक बन गए। 

लगभग एक महीना बीत गया लेकिन दोनों ने चुप्पी नहीं तोड़ी , महीने और फिर साल , आज लगभग 5 सालों के बाद भी जब मैं उनके घर के सामने से गुजरती हूं तो अनायास ही आंखें भर आती हैं क्योंकि उन्होंने बच्चे अच्छी तरह से पाले थे लेकिन सिर्फ थोड़ी सी अकड़ की वजह से दोनों ने बच्चों को अनाथ बना दिया। लगभग हर परिवार में छोटे मोटे झगडे होना आम बात है लेकिन अलगाव की हद तक उनको अहमियत देना बेहद ही गलत है क्योंकि अकड़ में पति -पत्नी मासूम बच्चों को बेवजह सजा देते हैं और उसकी छाया जीवन भर उनका पीछा नहीं छोड़ती , परिवार में बेहद मुख्य चीज आपसी समझ और बच्चों के मानसिक विकास पर कोई बुरा असर न पड़े इस बात का ख़याल होता है , उसके बाद ही हम गरीबी या अमीरी में उनकी परवरिश कर रहे हैं , आता है। मेरे विचार में हर एक परिवार में ऐसी चीजों का ध्यान रखना एक कर्तव्य होना चाहिए ,अन्यथा बच्चे शादी से ही डरकर भागने लगेंगे। 

आज पहली बार

मैंने अपने मन की उलझन सुलझाने का फैसला कर लिया।  यदि  लिखने से मन हल्का हो तो कोई हर्ज़ नहीं लिखने में। मुझे मेरे बचपन के दिन याद हो आये और साथ ही कुछ बेहद कड़वे क्षण भी जिन्हे मैं शायद कभी भूली नहीं। हमारे परिवारों में बच्चों से कई बातें छुपाई जाती हैं और वही बातें जब बाहरी दुनिया हमें सिखाती है तो उसका स्वरुप घिनौना होता है और दर्दनाक भी।
हम सब बच्चे खेलने की एक निश्चित जगह थी जहां ज्यादा जगह थी और बम्बई के छोटे घरों में बच्चों को सब कुछ मिलता है सिवाय जगह के और यदि जगह मिले भी तो वो रईसजादों को ही नसीब होगी। हम जहां खेलते थे वहीँ थोड़ी दूरी पर एक घर था जिसमे एक परिचित महिला अपने मा -पिता के साथ रहती थी। उनकी उम्र भी लगभग 60 होगी लेकिन उनके पिता की घिनौनी हरकतों का उनकी उम्र से कोई रिश्ता ही नहीं था।  खेलने वाली छोटी लड़कियों को बुलाकर ये महोदय अपनी काम वासना की तृप्ति में उनसे अपने शरीर पर मसाज़ करवाते थे।  मेरा दिल तो करता था कि उनकी हड्डी पसली एक कर  देती लेकिन उम्र आड़े आ गयी और महोदय बच गए।  मैंने सिर्फ अम्मा से कहा हर ऐरे गैरे को इज़्ज़त देने की जरुरत नहीं , उनकी समझ में आया नहीं तो फिर साफ़ साफ़ कह बैठी, आइंदा मुझे उनके घर भेजना मत और उनको इज़्ज़त देने को भी मत कहना।
यह अनुभव मेरे कच्चे मन पर एक गहरी चोट थी।
बीच में पापा की तबियत ठीक नहीं थी तकरीबन 5 सालों तक उनका लगातार इलाज़ करवाने में बजट शब्द गुम  हो गया या दब गया भार में पता नहीं।  हमारे प्रिंसिपल हमें घर आकर लिवा ले गए, बीच में कुछ समय पढ़ाई छोड़ने की नौबत आने पर जब सभी बच्चे दिखे नहीं तो प्रिंसिपल सर का माथा ठनका और वो सीधे घर आकर अपने निश्छल और प्यार भरे मन से मेरे मन पर एक गहरी छाप छोड़ गए जिसे मै आज तक एक धरोहर समझकर जितना मुझसे जमता है गरीब बच्चों को पढने में मदद करने से पीछे नहीं हटती।
एक शिक्षक महोदय ने मुझसे कहा मै सिर्फ तुम्हे शाम में पढ़ाई में सहायता करूंगा, क्लास के बाद नीचे कमरे में रहना।  मैंने सारे लड़कों को बेंच के नीचे छुपकर इशारा करने पर चिल्लाने कहा साथ ही प्रिंसिपल सर से जल्द ही नीचे कमरे में सभी शिक्षकों के साथ आने कह दिया ।  महोदय सबसे अनजान आये और दरवाजा भी बंद किया। जैसे ही पीछे मुड़े दरवाजे पर एक दस्तक और दरवाजा खोलते ही सारे लड़कों और सामने प्रिंसिपल को देखते ही उनके होश उड़ गए।  महोदय रंगे हाथ पकडे गए और सिवाय नौकरी छोड़ने के दूसरा कोई चारा रहा नहीं।
आज भी जब मै सोचती हूं तो दंग रह जाती हूं अपनी समझ पर।
इस घटना ने मन पर फिर एक छाप छोड़ दी और मैंने लोगों के ऊपरी मुखौटे के पार देखना सीखा।
एक दिन यूं ही हमारी एक पड़ोसिन ने जो उस समय मुझसे बड़ी थीं और मै सिर्फ 15 की थी , अम्मा से मुझे बाज़ार भेजने का आग्रह किया तुरंत इन्होने हां कर दी और मै उनके भरोसे चल दी।  बाजार में जाते ही वो गायब हो गयीं और मै अकेली रह गयी। मैंने थोड़ी सब्जियां खरीदीं लेकिन हर जगह "चिल्हर नहीं" का जवाब मिला। एक महोदय जहां मै खरीदती वहां पैसे देते मेरे पीछे लगे रहे।  मैंने अनजान बनकर गुस्से से बात कर उन दुकानो में पैसे दिए और डर से तेज तेज कदम बढ़ाये।  उस पड़ोसिन का दूर तक अता पता नहीं था। ये इंसान भी मेरे पीछे ही लगे रहे। मैंने रास्ता पार करने के भीतर चाय , दूध पीने का आमंत्रण भी किया जिसे मैंने उपवास के बहाने मना कर दिया।  जैसे तैसे स्टेशन नजदीक आया और मेरी जान में जान आयी।  पहले दर्जे का डब्बा ही सामने था , मैंने झट से चढ़ कर ठंडी चैन की सांस ली लेकिन जैसे ही ट्रैन चली पीछे उसी आदमी को देख मेरे होश उड़ गए।
 अब तो बेहद ही सतर्कता से दिमाग ने काम करना था।  मैंने देखा सिवाय हमारे दूसरा कोई था नहीं , मैंने बैग

 खिड़की वाली सीट पर रखा और बातों का क्रम जारी किया ताकि वो इंसान बना रहे।  जाहिर था वो अच्छा इंसान  था नहीं लेकिन दूसरा कोई रास्ता भी नहीं बचा। मैंने पूछा , कहाँ जायेंगे अंकल और उसने कहा थाना , मैंने
 कहा   मुझे भी वहीँ जाना है।  वो थोड़ा निश्चिन्त दिखा , वहां से 4 मिनट की दूरी मैंने तय करनी थी सो बातों में  उलझाना जरूरी था ताकि मैं किसी आफत में न फंसूं। मैंने दरवाजे पर ही खड़ा रहना बेहतर समझा लेकिन  लगातार ये इंसान मुझसे भीतर आने कहता रहा जिसे मै नजरअंदाज करती रही।  थोड़ी देर में स्टेशन आ गया    और मैंने झट से उतरकर पेपर स्टॉल पर जो लड़के थे  उनसे सब बातें बता कर उसकी चम्पी कर दूसरी ट्रैन में    मेरे बैग के साथ आने का अनुरोध किया।  थोड़ी ही देर में दोनों मेरे बैग के साथ उसकी मरम्मत कर लौट आये।
लगभग मेरी मां की उम्र के उस आदमी ने मेरी जान ही निकाल दी साथ ही एक सवाल भी मन में उठाया की एक बच्ची यदि होशियार न हो तो हर तरफ से उसको खतरों से बचाने कोई मिले ये जरूरी नहीं सो हर लड़की को अपनी सुरक्षा के तरीकों में माहिर होना ही बेहतर।
घर आकर मैंने अम्मा से कहा, आइन्दा हर ऐरे गैरे के साथ बाजार भेजने का ख्याल दिमाग से निकाल देना। यदि मेरी हिम्मत साथ न देती तो सोचो क्या होता ? भगवान का शुक्रिया अदा किया कि मुझे सही समय पर जूझने की ताकत तो दी। 

परिवार ही प्रेरणा

बचपन तो गुजर ही जाता है लेकिन यादों की धरोहर आजीवन हमें सुख और प्रेरणा देती हैं।  बहुतायत लोग सिर्फ पैसों से ही सुख मिलता है सोचते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। बच्चों की परवरिश में पैसों से ज्यादा महत्व छोटी छोटी बहुत सारी चीजों का होता है जिन्हे हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं। बचपन की यादों में यदि हम ध्यान दें तो सिर्फ निश्छल प्यार ही याद रहता है। बच्चों की सही जगह पर तारीफ करना उनको प्रेरित करने के लिए अति आवश्यक होता है।  बहुत लोगों को मैंने दुःख से कहते सुना है कि उनको बचपन में किसी ने प्रोत्साहित नहीं किया अन्यथा वे भी कुछ कर दिखाते।  40 की उम्र में उनका ये कहना उनके अपरिमित दुःख की अभिव्यक्ति ही तो है !
बच्चों को खाना और कपडे देना ही काफी नहीं , जहां जरूरत हो वहां उनको अनुशासन से रहना भी सिखाना बेहद जरूरी है। जीवन में बिना कठिनाइयों से जूझे हम कुछ भी नहीं कर सकते ।  बहुत सारे परिवारों में बच्चों को पूरी तरह स्वतंत्रता दी जाती है , जहां मां -पिता दोनों ही कमाने जैसी स्थिति हो वहां अधिकांशतः ये गलती देखी जाती है और नतीजे भी अच्छे नहीं होते लेकिन उनकी जड़ में अनुशासन की कमी ही होती है।

किताबें पढ़ने की आदत से बेहद ही सरलता से बच्चे कई बातें सीख जाते हैं।  भाषा का अच्छा ज्ञान भी स्वाभाविक ही होता है।  बचपन की ये आदत उनके भविष्य में काफी सहायक होगी। बचपन से ही इस आदत का होना उनके चारित्रिक विकास के लिए भी वरदान होगा। अधिकांशतः बच्चों के गलत दिशा में जाने के लिए चिंतित होना स्वाभाविक है लेकिन किताबों का चयन अच्छा होना चाहिए और इसमें हमारा मार्गदर्शन जरूरी है।

कई परिवारों में बच्चों को प्रोत्साहन देने बड़े नहीं होते और ठीक इसके विपरीत कई परिवारों में बड़े प्रोत्साहन नहीं देते , छोटी सी बातें बड़ा असर करती हैं और यह सिर्फ मां -पिता और गुरु ही कर सकते हैं , आजीवन मन पर इन बातों का प्रभाव रहता है। आज भी मेरे शिक्षकों की यादें मन में ताजा है। हर एक अच्छे प्रयास में उनका मार्गदर्शन भूला नहीं जा सकता।

रिश्तों में अपनापन बेहद ही आवश्यक होता है इसमें छिपी है उनके स्वाभिमानी और समर्थ बनने की कुंजी। जीवन में बहुत कुछ हासिल करने वालों से यदि पूछें तो उनकी परवरिश से ज्यादा उनपर अभिभावकों के प्रेम भरे व्यवहार का अधिक प्रभाव रहा है। जरूरी नहीं कि हम रईस हों ,प्यार तो पैसों से नहीं खरीदा जा सकता। बच्चों को हमेशा ही बच्चे न समझें उनमें आत्मविश्वास से निर्णय लेने जैसी क्षमताओं का विकास भी होना चाहिए और हमने उनपर भरोसा भी करना चाहिए , यदि हम उन्हें छोटा ही समझते रहें तो वे कब बड़े होंगे?
हमारे आपसी रिश्तों की मजबूती बच्चों को हमारे करीब लाएगी और यदि दुर्भाग्यवश कोई गलती भी हो तो निसंकोच हमें बताने की हद तक उनको हम पर भरोसा भी होना बेहद जरूरी होता है।  असलियत हमसे छुपाएंगे तो उनका मार्गदर्शक कौन होगा ? बाहरी लोगों से वे कैसे अपनी परेशानियां बांटेंगे ? यदि ऐसा हो भी तो उसमे दोनों ही दुखी होंगे तो क्यों न बच्चों से हम थोड़ी दोस्ती रखें ? एक नए रिश्ते की जड़ हमें बचपन में ही मजबूत कर लेनी चाहिए।
प्यार में असीमित शक्ति है जिससे हर बदलाव संभव है , जरूरत सिर्फ कोशिश की है।  हमारा निस्वार्थ प्यार ही उनके कोमल मन में गहरे तक जड़ें जमाकर उन्हें सफल बनाएगा। मैंने बचपन में बहुत ही करीब से देखा और  सीखा, कैसे एक परिवार में बिखराव सहजता से बच्चों की मानसिकता बदल सकता है , फिर कुछ भी बदलना नामुमकिन हो जाता है क्योंकि जो बातें मन में गहरे तक समातीं हैं उनको पूरी तरह निकालना आसान नहीं होता। इसमें सिर्फ मां -पिता होना ही काफी नहीं , बुद्धिमान होना बेहद जरूरी है।
गलतियां करना स्वाभाविक है लेकिन उनका निराकरण हम कैसे करते हैं ये बच्चे बारी
की से देखते हैं और अपनी जिंदगी में भी उसका अनुकरण करते हैं इसलिए हमेशा ही हमारा सतर्क रहना जरूरी होता है। गलतियों का सुधार कैसे किया जाए ये हमें अवश्य ही सिखाना चाहिए , न कि सारे निर्णय हमें लेने चाहिए।
यदि हमारे बीच किसी भी तरह की परेशानियां हों तो उनका प्रदर्शन बच्चों के सामने न करना ही बेहतर , हमपर न सिर्फ उनका भरोसा रहना चाहिए बल्कि हमें उनका आदर्श भी होना चाहिए। यदि हम उनके सामने ही झगड़ें तो उनका कमजोर होना गलत नहीं।
हमारा व्यवहार उनके लिए हमेशा ही समझदारी भरा होना चाहिए , जीवन में वे हमें हर कदम पर याद करने जैसा हमें उदहारण प्रस्तुत करना चाहिए। मैंने कई लोगों को आत्महत्या करते देखा है लेकिन कारण बेहद ही साधारण होते हुए भी यदि अपनी जिंदगी ख़त्म करने में वे नहीं हिचकते तो साफ़ जाहिर है कि उनको घर में प्यार देने और समझने वाला कोई  नहीं है।  छोटी छोटी बातों पर गौर करना अच्छी बात है क्योंकि हर बच्चा अपनी परेशानियां सबसे कहे ये जरूरी नहीं।  हमारा उनपर पूरा ध्यान रखना भी प्यार ही तो है।

कई परिवारों में रिश्ते सिर्फ पैसों के डर से तोड़े जाते  हैं , शायद हमसे मदद पूछें , यह बिलकुल ही गलत तरीका है क्योंकि रिश्तों में जो मिठास है वो अन्यत्र कहीं नहीं , उसको कायम रखना और दूसरों की ताकत बनना हर तरह से अच्छा होता है।